अमेरिका के अफगानिस्तान से वापसी और काबुल पर तालिबान के बलात सत्ता पर कब्जे से मीडिया मे छाई खबरों ने आधुनिक जीवन-मूल्यों के समर्थको की निगाह में बिडेन की छवि एक क्रूर पिशाच की बना दी है। जब इस घटनाक्रम पर अमेरिकी राष्ट्रपति की हैसियत से अपना पक्ष रखते हुए अमेरिका के अफगानिस्तान से वापसी और काबुल पर तालिबान के बलात सत्ता पर कब्जे से मीडिया मे छाई खबरों ने आधुनिक जीवन-मूल्यों के समर्थको की निगाह में बिडेन की छवि एक क्रूर पिशाच की बना दी है। उस पर भी रही सही कसर इस vedio (नीचे)ने पूरी कर दी जब इस घटनाक्रम पर अमेरिकी राष्ट्रपति की हैसियत से अपना पक्ष रखते हुए उन्होंने खुद को मानवाधिकारों का समर्थक घोषित किया।
वैसे बिडेन ने कुछ नया नही किया। वो तो अपने पूर्ववर्ती ट्रम्प के निर्णयों पर न सिर्फ अडिग रहे बल्कि उसे और तेज़ी से लागू किया है।अमेरिकियों द्वारा लिया गया यह निर्णय कोई तुक्केबाजी नही है। ये निर्णय ऐसे समय लिया गया जब ज्यादातर लोग इस बात को स्वीकार करने लगे थे कि अमेरिकी वर्चस्व के दिन लद गए तथा एक नई विश्व व्यवस्था आकर ले रही है। 21वी सदी एशिया की है तथा चीन और भारत वैश्विक शक्ति के रूप में नई भूमिका निभाने में सक्षम हो गए हैं,यूरोप वैश्विक केंद में हासिये पर है और रूस दोयम दर्जे की शक्ति मात्र बन कर राह गया है। सवाल इतना भर रह गया था कि 1588 के आर्मडॉ के युद्ध से लेकर 1945 तक की लंदन की वैश्विक केंद्र वाली स्थिति जो वाशिंगटन ने हासिल कर ली थी उसे 2050 तक बीजिंग या दिल्ली में से कौन हासिल करता है?
2008 के आस-पास अमेरिका की वैश्विक-आर्थिक स्थिति पर एक रिपोर्ट आती है जिससे कहा गया कि अमेरिका ने वैश्विक व्यवस्था निर्माता के रूप में अपनी सुरक्षा जिम्मेदारियो को इतना बढ़ा लिया है कि उसके रिसर्च और डेवलपमेंट का एक बड़ा हिस्सा सैन्य व्यय पर खर्च हो रहा है। इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि अमेरिकी नागरिक उत्पाद वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पिछड़ रहे है। 2008 की आर्थिक मंदी और इराक तथा एवं अफगानिस्तान की खनिज सम्पदा के दोहन में आई बाधाओं ने इस समस्या को और गहरा दिया। फिर अमेरिका का ध्यान जलवायु परिवर्तन व कार्बन उत्सर्जन पर गया, नवीकरणीय ऊर्जा को दुनिया के सुरक्षित भाविष्य के रूप में प्रचारित करने वाला अमेरिका जब ये समझ गया कि चीन और भारत यहाँ उससे आगे निकल चुके है तो वह पेरिस जलवायु संधि से ही बाहर हो गया। अफगानिस्तान के लिथियम भंडार उसके लिए किसी काम के नही रहे। आजकल की चर्चाएं भविष्य में लिथियम बैटरी से उत्पन्न होने वाले कचरे पर केंद्रित है। क्योंकि अमेरिका हायड्रोजन ईंधन की तरफ बढ़ रहा है जहाँ सभी को शून्य से सुरुवात करनी है। अमेरिका को उम्मीद है कि यहाँ वो बढ़त बना लेगा तथा तालिबान जिसको नियंत्रित करने के लिए 2200 अरब डॉलर से अधिक का खर्चा आया उसको हथियार की तरह प्रयोग कर के वह पूरे एशिया को उलझा कर 2008 की मंदी के पहली वाली स्थिति में आ जायेगा।
तालिबान की सत्ता में वापसी एशिया में अनेक स्थानों पर चल रहे अतिवादी मुस्लिम अलगाववाद/आतंकवाद के लिए संजीवनी का काम करेंगी। आतंकवाद को विदेशनीति के हिस्से के रूप में प्रयोग करने की देशो की नीतियां इसमे आग में घी का काम करेगी। एशियाई देशों की आर्थिक एंव मानव सम्पदा का एक बड़ा हिस्सा इसपे ख़र्च होगा, अशांति एंव तनाव का वातावरण निवेश व आर्थिक विकास की राह में बाधा पैदा करेगा। वैश्विक निवेश का रुख अमेरिका की तरफ होगा, एशिया के हथियार आयातक देशो की मांग में वृद्धि अमेरिकी रक्षा उत्पादन को गति प्रदान करेगी। बस चाँदी ही चांदी।
सियासत की सही चाल वही है जहाँ चित भी अपना और पट भी। सबकुछ योजना के अनुसार चला तो बिडेन चीन के देन शियाओ पिंग की भूमिका में होंगे। आखिर उन्होंने समस्या को ही समाधान जो बना दिया।एक देश की मजबूत स्थिति को बनाये रखने के लिहाज से काबिले तारीफ कदम। रही बात मानवाधिकारों की तो वो पश्चिम के लोगो के लिए है, जो अमेरिका से इस बात के लिए अपेक्षा रखते हैं अपेक्षा ही तो है!
बहुत खूब शानदार जबरदस्त
ReplyDeleteThank you
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